Tuesday, January 6, 2009

आज

आज सुबह बेचैनी ने बिस्तर को ऐसे घेअर रखा था
सोचा सबा कुछ माहौल बदल देगी
खिड़की खोली तो एक बड़ा कला बदल घूरने लगा
चुपके से सहम के बैठ गई
कम्बल लाना भूल गई थी
अब दुबारा बेचैनी वाले कमरे में जाने की हिम्मत कहाँ
आंसों से मिन्नतें करने लगी के आंखों तक मत आओ
और फिर याद आया मेरी बहिन का ३ साल का बेटा
जो रोने वाले मुंह बनता है तो हँसी आ जाती है
मेरा पागल दोस्त जो अपनी कही बात पे इतने ज़ोर ज़ोर से हस्त है
की उस वक्त उस पे बेंतेहा प्यार आता है
बेसन के हलवे के पकने की खुशबू आई
वोही वाला जो मेरी नानी बनती थी
कहीं दूर से अजान सुने दी
और मनन में अपने आप ही
बुल्ले शाह का कलाम गूंजने लगा
दिल्ली की चाँदनी चौक की गलियां याद आ गई
लाल कुइला किसने बनाया था?
गुरद्वारे से गुरबानी की आवाज़ थी
दरबार साब से…
बचपन याद आ गया
जब हम सब ट्रेन से जाते थे
और सिर्फ़ मुझे, पदों के पास
खेतों में, प्लात्फोर्म पे
सफ़ेद कुरते में वो शख्स दीखता था
पता नही कौन था पर बहुत अच्छा था
काफ़ी सालों तक जब भी मुझे डर लगता था
वो आ जाता था
और डर उससे डर जाता था
न जाने कहाँ से पापा की बातिएँ सुने देने लगी
मेरी शेरनी से पंगा मत लेना!
बहुत हसी आई
बहार देखा
एक हसीं सुबह मुझे सलाम कर रही थी….

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